Stone Age (पाषाणकाल): A Complete Note

प्रागैतिहासिक काल
Stone Age:A Note for All Civil Services Exams.
(पाषाणकाल: सभी लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के लिए एक नोट)

I. पाषाणकाल: पृष्ठभूमि:
मानव इतिहास भू-वैज्ञानिक इतिहास का एक अंश मात्र है। भू-वैज्ञानिक इतिहास की चौथी अवस्था चातुर्थिकी कहलाती है जिसके दो भाग हैं- अतिनूतन और अद्यतन। भारतीय परिप्रेक्ष्य में पाषाणयुग अतिनूतन काल में प्रारंभ होकर 2500 ईसा पूर्व तक (प्रायद्वीपीय भारत में 1000 ईसा पूर्व तक) माना जाता है। वस्तुतः पत्थरों के उपकरणों के प्रयोग के आधार पर इसे पाषाणयुग कहा जाता है।
काल विभाजन: जलवायवीय परिवर्तनों, जीवन शैली के स्वरुप तथा पाषाण तकनीक में परिवर्तन के आधार पर पाषाणयुग को पुरा-पाषाणकाल (10 लाख ईसा पूर्व से 10000 ईसा पूर्व), मध्य-पाषाणकाल (10000 ईसा पूर्व से 6000-4000 ईसा पूर्व) तथा नव-पाषाणकाल (6000-2500 ईसा पूर्व) में विभाजित किया जाता है।
A. पुरा- पाषाणकाल: पृष्ठभूमि- पाषाणकाल की प्रारंभिक अवस्था में जब मानव आखेटक तथा खाद्य-संग्राहक की भूमिका का निर्वाह करते हुए जीवन-यापन कर रहा था, उसे पुरा-पाषाणकाल की संज्ञा दी जाती है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में पुरा-पाषाणकाल का काल खंड 10 लाख ईसा-पूर्व से 10000 ईसा-पूर्व तक माना जाता है तथा इसकी खोज का श्रेय रोबर्ट ब्रुशफ्रुट को दिया जाता है।
अवस्थायें: पाषाण उपकरणों के स्वरुप तथा जलवायवीय परिवर्तनों के आधार पर पुरा-पाषाणकाल को पुनः तीन काल-खण्डों या अवस्थाओं - निम्न, मध्य तथा उत्तर पुरा- पाषाणकाल में विभाजित किया जाता है।
(i) निम्न पुरा-पाषाणकाल: इस अवस्था का काल खंड 10 लाख ईसा पूर्व से 1 लाख ईसा पूर्व तक माना जाता है। इस काल-खंड की मुख्य पहचान खंडक/गंडासा (Chopper), विदारनी (cleaver), हस्त-कुठार (hand axe) जैसे उपकरणों से की जाती है जो सामान्य तौर पर स्फटिक (quartzite) से बने हैं। इन उपकरणों से काटने, छीलने तथा खोदने का काम लिया जाता होगा ।
(ii) मध्य पुरा-पाषाणकाल: इस अवस्था का काल-खंड 1 लाख ईसापूर्व से 40000 ईसापूर्व तक माना जाता है। इस काल-खंड की मुख्य पहचान शल्क/फलक (flakes) रूपी पाषाण उपकरणों से होती है जो सामान्य तौर पर जेस्पर (jasper) से निर्मित हैं। इन उपकरणों से कुरेदने तथा छीलने के काम संपन्न किये जाते होंगे।
(iii) उत्तर पुरा-पाषाणकाल: इस अवस्था का काल-खंड 40000 से 10000 ईसापूर्व तक माना जाता है। इस काल-खंड की मुख्य पहचान तक्षणियों (blades) रूपी पाषाण उपकरणों से होती है। इस काल की मुख्य विशेषता है होमो-सेपियंस का उदय तथा चकमक उद्योग की स्थापना।
समाज: आखेटक-संग्राहक समाज, टोली या वृन्द स्तर पर संगठित होते होंगे। वृन्द या टोली शब्द का प्रयोग परिवर्तनीय सदस्यता वाले छोटे समूहों के लिए होता है। तथापि वृन्दों में भी परिवार ही उत्पादन की अनिवार्य इकाई रही होगी। अधिकांश गतिविधियाँ यथा रसद एकत्रीकरण, मछली मारना आदि परिवार के स्तर पर सम्पन्न की जाती होंगी, परन्तु बड़ा शिकार करने का कार्य वृन्द के पुरुषों के समूह द्वारा किया जाता होगा। शिकार या संग्रहण से प्राप्त भोजन के भण्डारण या अधिशेष की कोई सम्भावना नहीं रहती होगी। शिविरों को वनस्पति तथा जानवरों दोनों की उपलब्धता के अनुसार बार-बार बदलना पड़ता होगा जिससे सीमित आबादी सुनिश्चित होती होगी। टोली स्तर के समाज समतावादी होते हैं जहाँ औपचारिक स्थाई या अनुवांशिक नेतृत्व नहीं होता।
संस्कृति: मध्यप्रदेश में भीमबैठका सहित 150 से अधिक शैलाश्रयों तथा गुफाओं में पुरा-पाषाणकाल के (मुख्यतः पूर्व पुरा-पाषाणकाल तथा मध्य पुरा-पाषाणकाल) भित्त-चित्र प्राप्त होते हैं। चित्रों का विषय-वस्तु मुख्य तौर पर वन्य-जीवन तथा उससे संबंधित गतिविधियाँ हैं। उदहारण के लिए पशु आकृतियाँ तथा शिकार के दृश्य उकेरे गए हैं। कुछ चित्र एकल रंगी तो कुछ बहुरंगी हैं। यद्यपि विभिन्न रंगों का प्रयोग किया गया है परन्तु अधिकतर चित्र सफ़ेद व लाल रंग के हैं। चित्रों का आकर वृहद् है। इन भित्तचित्रों से तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, विश्वासों तथा जीवन शैली के अनुमान मिलते हैं उदाहरण के लिए आखेट के चित्रों में सामान्य तौर पर पुरुष आकृतियाँ व खाद्य-संग्रहण में महिला आकृतियाँ श्रम-विभाजन का संकेत देती हैं। साथ ही आखेट के दृश्यों से डंडे, भाले व तीर के प्रयोग की जानकारी मिलती है ।
B. मध्य पाषाणकाल: पाषणयुगीन संस्कृति में 9000 ईसापूर्व में एक मध्यवर्ती अवस्था आई जिसमे जीवन-यापन शैली में एक परिवर्तन पशुपालन के रूप में दृष्टिगोचर होता है। यह अवस्था पुरा-पाषाण व नव- पाषाणकाल के मध्य का संक्रमण काल है, जिसे मध्य पाषाणकाल की संज्ञा दी जाती है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह अवस्था 9000 ईसापूर्व में हिमयुग की समाप्ति से प्रारम्भ होकर 6000-4000 ईसापूर्व तक जारी रही। इसकी खोज का श्रेय सी एन कार्लाइल को दिया जाता है। हिमयुग की समाप्ति के फलस्वरूप विशालकाय जीवों के स्थान पर घास खा कर छोटे जीवों (खरगोश, बकरी, हिरन आदि) का उद्भव हुआ, जिनके शिकार के लिए छोटे हथियारों की आवश्यकता पड़ी होगी। अतः मानव ने लघु पाषाण उपकरण बनाने प्रारंभ किये जिनका विकास उत्तर पूर्व-पाषणकालीन परंपरा से हुआ। इसी समय प्रक्षेपास्त्र तकनीक का भी विकास हुआ। इस कालावधि में सामजिक तौर पर नए परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। जनसंख्या वृद्धि व शिकार की सुगमता से वृन्दों का आकर बढ़ा तथा स्थायी निवास की परंपरा प्रारंभ हुई।
C. नव-पाषाणकाल: पृष्ठभूमि- मध्य पाषाणकाल की समाप्ति तथा नव-पाषाणकाल की शुरुआत में मूलभूत अंतर कृषि की शुरुआत है। वस्तुतः मानव ने जिस समय से सुचारू रूप से कृषि-कर्म प्रारंभ कर दिया या दूसरे शब्दों में भोजन-संग्राहक से भोजन-उत्पादक बन गया वहीं से नव-पाषाणकाल की शुरुआत मानी जाती है। इस काल में कृषि व संलग्न गतिविधियों के कारण उपयोग में लाये जाने वाले पाषण उपकरणों की प्रकृति व स्वरुप में महत्वपूर्ण परिवर्तन आये। पालिशदार पाषण उपकरण जिनमें पत्थर की कुल्हाड़ी सबसे महत्वपूर्ण है, इस काल की विशेषता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में नव-पाषाणकाल 6000-2500 ईसापूर्व तक माना जाता है। इसकी खोज का श्रेय ली-मसुरिये को दिया जाता है।
(i) नव- पाषाणक्रांति: पृष्ठभूमि- अतिनूतन काल के अंत के साथ जलवायु गर्म हो गयी। अतः शिकारी-संग्रहकर्ताओं ने जीवन-यापन के लिए जलवायु के अनुसार जीवन-शैली परिवर्तित कर ली। इसी पृष्ठभूमि में कृषि तथा पशुधन अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार बनते चले गए। कृषि प्रारंभ होने की कई परस्पर विरोधाभाषी व्याख्याएं प्रस्तुत की गयी। इनमें मुख्यतः पर्यावरणीय परिस्थितियों में बदलाव के कारण कृषि के प्रारंभ की व्याख्या रखी गयी। इसके समानांतर कुछ विद्वान जनसंख्या दबाव को भी कृषि की ओर संक्रमण की वजह मानते हैं।
अवधारणा: वी गोर्डनचाइल्ड ने अपनी पुस्तक Man Makes Himself में सर्वप्रथम नव पाषाणक्रांति की अवधारणा प्रस्तुत की। इस अवधारणा से उन्होंने कृषि के प्रारंभ व खाद्य उत्पादन के क्रांतिकारी महत्त्व को रेखांकित करते हुए इसे अग्नि तकनीक के पश्चात सबसे महान आर्थिक क्रांति करार दिया। उनके अनुसार नव पाषाणयुगीन जीवन में खान-पान की आदतों में महत्वपूर्ण बदलाव आया। पुरा पाषाण व मध्य पाषाणकाल में जहाँ ज्यादातर मांस खाया जाता था वहीं नव-पाषाणकाल में मुख्यतः अनाज खाया जाने लगा। शाकाहारी भोजन को प्राथमिकता मिलने से नमक की आवश्यकता बढ़ गयी तथा उसका व्यापार भी होने लगा। पशुपालन से दूध व दूध से बने पदार्थ भी भोजन में शामिल हो गये। कृषि के आरम्भ के फलस्वरूप खानाबदोश जीवन की समाप्ति तथा स्थायी निवास की शुरुआत हो गयी। पाषाण तकनीक में व्यापक परिवर्तन आया क्योंकि कृषि व संलग्न गतिविधियों हेतु विशेष औजारों की आवश्यकता पड़ी। भोजन पकाने व संग्रहण हेतु मृदभांड उपयोग में लाये जाने लगे। यही मृदभांड अपनी विशिष्टताओं के कारण किसी संस्कृति विशेष की पहचान व उनके तिथि निर्धारण का आधार बन गये। श्रम विभाजन, सीमित सामजिक संगठन, सामाजिक तंत्र व सामाजिक संघर्षों की पृष्ठभूमि तैयार हुई। विशिष्ट धार्मिक आस्थाओं जिनमें प्रजनन व उत्पादकता के प्रति गहरा सरोकार था, का उदय हुआ। निष्कर्षतः नव-पाषाणयुग में कृषि के उद्भव से आमूल सामाजिक परिवर्तन हुए। मानव समुदाय ने भूमि, श्रम व पूंजी पर नियंत्रण स्थापित करने हेतु नयी व्यवस्था स्थापित की जिससे सामाजिक आर्थिक व राजनैतिक जटिलताएं पैदा हुईं तथा सभ्यताओं का निर्माण हुआ।
(ii) नव-पाषणयुगीन समाज: नव-पाषणयुगीन समाज एक जनजातीय समाज रहा होगा। वृन्दों या टोलियों की तुलना में जनजातीय समाज के सदस्यों की संख्या अधिक होती है। जनजातीय समाज की सबसे छोटी इकाई विस्तारित परिवार रहा होगा न कि मूल परिवार। यह श्रम की एकजुटता में सहायक होता होगा जो इस काल की आर्थिक गतिविधियों हेतु आवश्यक भी था। जनजातीय समाज मूलतः समतावादी होते हैं तथा उनमे सामाजिक स्तरीकरण नहीं होता। संसाधनों पर नियंत्रण हेतु अंतरजनजातीय संघर्ष अवश्य होते होंगे जिससे सामाजिक नेतृत्व की अवधारणा उत्पन्न हुई होगी।
II ताम्र पाषाणकाल: पृष्ठभूमि
2500 ईसापूर्व आते-आते धातुओं का प्रयोग प्रारंभ हो गया। धातुओं में सर्वप्रथम ताम्बे का प्रयोग हुआ। इसी पृष्ठभूमि में कई क्षेत्रीय संस्कृतियों का आविर्भाव हुआ जो कि ताम्बे और पत्थर के उपकरणों का प्रयोग साथ-साथ कर रहे थे, इसीलिए इन संस्कृतियों को ताम्र पाषाणी संस्कृति कहते हैं। पहाड़ी जमीन और नदियों वाले क्षेत्रों में ग्रामीण समुदाय के रूप में इनका विकास हुआ
A. भौगोलिक प्रसार: भारत में ताम्र पाषाण अवस्था की बस्तियां दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्यप्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र व दक्षिण-पूर्वी भारत में पायी गयी हैं। 2100-1500 ईसापूर्व के मध्य राजस्थान के बनास नदी घाटी के क्षेत्र में अहार संस्कृति का उद्भव हुआ। अहार गिलुद इसके प्रमुख स्थल हैं। 2000-1800 ईसापूर्व के मध्य मध्यप्रदेश में काली सिंध नदी क्षेत्र में उज्जैन के पास कायथा संस्कृति का उद्भव हुआ। 1700 ईसापूर्व में मध्यप्रदेश में ही मालवा संस्कृति विकसित हुई जिसके महत्वपूर्ण स्थल माहेश्वरनवादटोली हैं। 2000 ईसापूर्व महाराष्ट्र में साल्वदा संस्कृति सहसा प्रकट होती है। 1400-700 ईसापूर्व के मध्य पश्चिम महाराष्ट्र के बड़े क्षेत्र में जोर्वे संस्कृति का विकास हुआ। प्रवरा नदी के तट पर स्थित जोर्वे इस संस्कृति का प्रतिनिधि स्थल है। दैमाबाद, इनामगाँव, चंदोली अन्य महत्वपूर्ण स्थल हैं। सौराष्ट्र (गुजरात) में प्रभाष व रंगपुर संस्कृतियाँ पाई जाती हैं
B. अर्थव्यवस्था: इन समस्त ताम्र पाषाणी संस्कृतियों का आर्थिक आधार कृषि व पशुपालन थे। जौ, गेहूँ व बाजरा मुख्य फसलें थीं। विविध कृषि उपकरणों के साथ-साथ हल के प्रयोग के भी साक्ष्य मिलते हैं
C. समाज: अधिकतर संस्कृतियों की सामाजिक संरचना जनजातीय प्रकार की रही होगी। इन जनजातीय समाजों में एक या अधिक प्रस्थिति समूह होते होंगे क्योंकि शवाधान के प्रकारों में अंतर है। कुछ संरचनायें यथा परकोटा अन्नागार, बाँध आदि किसी प्रकार के प्रशासनिक प्राधिकरण की उपस्थिति का आभास देते हैं
Sandal S Anshu, Satna


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